Monday, December 13, 2010

Raah

१।
एक अनजानी-सी राह पर,
चल पड़े थे बस कभी,
न कल का पता था,
और न मंजिल का,
और न कोई अंदाज़ा ही,
कि क्यों चले जा रहे थे,
बस एक अतृप्त प्यास थी,
और एक अमर मृग तृष्णा।

२।
खिचे जाते थे,
अभिभूत किसी परा शक्ति से,
कभी हँसते, कभी रोते,
या फिर कभी यूँ ही,
असीम क्षितिज को निहारते,
पर न कभी राह खत्म हुई,
न कभी मंजिल हाथ आई।

३।
पर उदविग्न मेरे मन को,
ऐसा लगता है अक्सर,
कि कोई तो है कहीं,
जो इन सूनी-अँधेरी राहों में,
दूर एक छोटा-सा, टिमटिमाता,
दिया जलाए जाता है,
अपने अस्तित्व, अपने होने का,
अनुमान दिए जाता है।

४।
शायद वही एक राह है,
वही एक मंजिल,
उसी के प्रकाश का प्रतिबिम्ब,
हर जीव में दिखता, हल्का-धूमिल,
शायद है वही स्रोत,
इस जीवन स्वप्न का,
और वही एक आधार,
हमारे उत्पत्ति-विलोप का।

५।
शायद वही था,
जब कुछ भी नहीं था,
और सिर्फ वही है,
जब ये सकल विश्व है,
अगर यही है वो सत्य,
तो राह कैसी, मंजिल कैसी,
जब वो ही है अकेला पथिक,
तो चिंता कैसी, उलझन कैसी।

- Copyright: Awanish Gautam (10th-Dec-2010) :-)